छतीसगढ़ का महाजनपद काल [Mahajanapada period of Chhattisgarh]
छतीसगढ़ का महाजनपद काल/बुद्ध काल (छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व)
भारतीय इतिहास में छठवीं शताब्दी ईसवी पूर्व का विशेष महत्व है, क्योंकि इसी समय से भारत का व्यवस्थित इतिहास मिलता है. इसके साथ ही यह बुद्ध एवं महावीर का काल है. इसमें देश अनेक जनपदों एवं महाजनपदों में विभक्त था. छत्तीसगढ़ का वर्तमान क्षेत्र भी (दक्षिण) कोसल के नाम से एक पृथक् प्रशासनिक इकाई था. मौर्यकाल से पूर्व के सिक्कों की प्राप्ति से इस अवधारणा की पुष्टि होती है.
‘अवदान शतक’ नामक एक ग्रन्थ के अनुसार महात्मा बुद्ध दक्षिण कोसल आये थे तथा लगभग तीन माह तक यहाँ की राजधानी में उन्होंने प्रवास किया था. ऐसी जानकारी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांत से भी मिलती है.
![छतीसगढ़ का महाजनपद काल [Mahajanapada period of Chhattisgarh] 1 का प्राचीन इतिहास Ancient History of Chhattisgarh छतीसगढ़ का महाजनपद काल [Mahajanapada period of Chhattisgarh]](https://cg.sahity.in/wp-content/uploads/2021/05/छत्तीसगढ़-का-प्राचीन-इतिहास-Ancient-History-of-Chhattisgarh.jpeg)
नन्द-मौर्य काल
दक्षिण कोसल का क्षेत्र सम्भवतः नन्द मौर्य साम्राज्य का अंग था, इसकी पुष्टि चीनी यात्री युवान-च्चांग (ह्वेनसांग) के यात्रा विवरण से होती है, जिसके अनुसार सम्राट अशोक ने यहाँ बौद्ध स्तूप का निर्माण कराया था.
अशोक के साम्राज्य के अन्तर्गत आन्ध्र, कलिंग एवं रूपनाथ (जबलपुर) के होने की जानकारी यहाँ प्राप्त उसके अभिलेखों से होती है. अतः मध्य का यह भाग भी उनके साम्राज्य के अन्तर्गत रहा होगा.
रायपुर जिले के तारापुर, आरंग, उडेला आदि स्थानों से कुछ आहत मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं, जिनका वजन 12 रत्ती का है. अतः इन्हें तकनीकी दृष्टि से प्राक्-मौर्य काल का माना जाता है. मौर्यकाल के सिक्के मुख्यतः अकलतरा, ठटारी, बार एवं बिलासपुर से प्राप्त हुए हैं. इसी काल के पुरातात्विक स्थल सरगुजा जिले के रामगढ़ के निकट ‘जोगीमारा’ और सीताबेगरा, नामक गुफाएँ हैं, जोगीमारा से अशोक कालीन लेख, भाषा एवं लिपि पाली एवं ब्राम्ही में ‘सुतनुका’ नामक देवदासी एवं उसके प्रेमी ‘देवदत्त’ का उल्लेख है. सीताबेगरा विश्व की प्राचीन नाट्यशाला मानी गई है.
सातवाहन काल
मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् दक्षिण भारत में सातवाहन राज्य की स्थापना हुई. पूर्वी क्षेत्र में चेदिवंश का उदय हुआ. दक्षिण कोसल का अधिकांश भाग सातवाहनों के प्रभाव क्षेत्र में था. इसका पूर्वी भाग सम्भवतः चेदिवंश के राजा खारवेल के अधिकार के अन्तर्गत रहा होगा. सातवाहन राजा अपीलक की एकमात्र मुद्रा रायगढ़ जिले के ‘बालपुर’ नामक स्थल से प्राप्त हुई है. अपीलक का उल्लेख सातवाहन वंश के अभिलेखों में नहीं मिलता, किन्तु पौराणिक विवरणों से इसके सातवाहन राजा होने की पुष्टि होती है. सक्ती के निकट ‘गुंजी’ (ऋषभतीर्थ) से प्राप्त शिलालेख में कुमार वरदत्तश्री नामक राजा का उल्लेख है, जो सम्भवतः सातवाहन राजा था.
इसी काल का एक काष्ठस्तम्भ लेख जांजगीर जिले के ‘किरारी’ (चन्द्रपुर) नामक स्थान से प्राप्त हुआ है, अंचल के अनेक स्थलों से ताँबे के आयताकार सिक्के प्राप्त हुए हैं, जिनमें एक ओर हाथी तथा दूसरी ओर स्त्री अथवा नाग का अंकन है, जो सातवाहन कालीन है. बुढ़ीखार नामक स्थान में लेख युक्त एक प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो इसी काल की है, मल्हार में उत्खनन से दूसरे स्तर पर (जो मौयसातवाहन-कुषाण काल का माना गया है) प्राप्त मिट्टी की मुहर में ‘वैदसिरिस’ (वेदश्री) लेख अंकित मिलता है. प्रसिद्ध चीनी यात्री वुवान च्वांग ने उल्लेख किया है कि दक्षिण कोसल की राजधानी के निकट एक पर्वत पर सातवाहन राजा ने एक सुरंग खुदवाकर प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु नागार्जुन के लिए एक पाँच मंजिला भव्य संघाराम बनवाया था.
सातवाहनों के समकालीन कुषाण राजाओं के ताँबे के सिक्कों की प्राप्ति भ्रम उत्पन्न करती है, क्योंकि यहाँ कुषाण राज्य के विषय में किसी भी स्रोत से कोई जानकारी नहीं मिलती. इसी काल में रोम की स्वर्ण मुद्राएँ भी मिलती हैं, जो सम्भवतः व्यापारियों द्वारा लायी गयी थीं.
मेघ वंश
सातवाहनों के पश्चात् सम्भवतः दक्षिण कोसल में ‘मेघ’ नामक वंश ने राज्य किया. पुराणों के विवरण से ज्ञात होता है कि गुप्तों के उदय के पूर्व कोसल में मेघ वंश के शासक राज्य करेंगे. सम्भवतः इस वंश ने यहाँ द्वितीय शताब्दी ईस्वी तक राज्य किया.
वाकाटक काल
सातवाहन के पतन के पश्चात् वाकाटकों का अभ्युदय हुआ. डॉ. मिराशी के अनुसार वाकाटक प्रवरसेन प्रथम ने दक्षिण- कोसल के समूचे क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था. इस शासक की मृत्यु के बाद राज्य क्षीण होने लगा और गुप्तों ने दक्षिण कोसल पर अधिकार कर लिया. यह घटना 3-4वीं सदी के बीच के काल की है.
वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन द्वितीय के बालाघाट ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि उसके पिता नरेन्द्रसेन ने कोसल के साथ मालवा और मैकल में अपना अधिकार स्थापित कर लिया था. नरेन्द्रसेन और पृथ्वीसेन द्वितीय का संघर्ष बस्तर कोरापुट क्षेत्र में राज्य करने वाले नल शासकों से होता रहा.
नल शासक भवदत्त वर्मा ने नरेन्द्रसेन की राजधानी नंदीवर्धन (नागपुर) पर आक्रमण कर उसे पराजित किया था, किन्तु उसके पुत्र पृथ्वीसेन द्वितीय ने इसका बदला लिया और भवदत्त के उत्तराधिकारी अर्थपति को पराजित किया. सम्भवतः इस युद्ध में अर्थपति की मृत्यु हो गई थी, कालान्तर में वाकाटकों के वत्सगुल्म शाखा के राजा हरिसेन ने दक्षिण कोसल क्षेत्र में अपना अधिकार स्थापित कर लिया. इसके समय वाकाटक साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था. सम्भवतः त्रिपुरी के कल्चुरियों ने वाकाटकों का अन्त कर दिया, किन्तु दक्षिण कोसल में सम्भवतः नल राजा स्कंदवर्मन द्वारा नल वंश की पुनःस्थापना कर बस्तर के पुष्करी (भोपालपट्टनम्) को राजधानी बनाया. वाकाटक प्रवरसेन के आश्चय में कुछ समय भारत के प्रसिद्ध कवि कालिदास ने व्यतीत किया था.
गुप्त काल
उत्तर भारत में शुंग एवं कुषाण सत्ता के पश्चात् गुप्त वंश ने राज्य किया तथा दक्षिण भारत के सातवाहन शक्ति के पराभव के पश्चात् वाकाटक राज्य की स्थापना हुई. गुप्त वंश के सम्राट समुद्र गुप्त की प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके दक्षिणापथ की दिग्विजय के समय सर्वप्रथम दक्षिण कोसल के राजा महेन्द्र को पराजित किया था. इसके पश्चात् महाकान्तर के व्याघ्रराज का उल्लेख है. महेन्द्र के उत्तराधिकारियों के विषय में जानकारी नहीं मिलती, किन्तु दुर्ग जिले के ‘बानबरद’ नामक स्थान से गुप्त मुद्राओं की प्राप्ति तथा यहाँ के अभिलेखों में गुप्त संवत् के प्रयोग से स्पष्ट है कि यहाँ गुप्तों की अधिसत्ता स्थापित हो गई थी. व्याघ्रराज का सम्बन्ध सम्भवतः नल वंश से रहा होगा.
राजर्षितुल्य कुल
दक्षिण कोसल क्षेत्र में इस वंश के राज्य करने के विषय में भीमसेन द्वितीय के आरंग ताम्रपत्र (गुप्त संवत् 182 या 282) से जानकारी मिलती है. इस ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि राजर्षितुल्य के छः राजाओं क्रमशः शूरा, दयित, विभीषण, भीमसेन (प्रथम), दयित (द्वितीय) तथा भीमसेन (द्वितीय) ने राज्य किया था, गुप्त संवत् के प्रयोग से स्पष्ट होता है कि इस वंश के शासक गुप्त अधिसत्ता स्वीकार करते थे. इस लेख में तिथि संवत् 182 अथवा 282 अंकित है जो अस्पष्ट है. यदि इसे संवत् 182 माना जाये, तो इस वंश का उदय पाँचवीं शताब्दी में एवं तिथि 282 मानने पर छठवीं शताब्दी माना जा सकता है.
पर्वतद्वारक
महाराज तुष्टिकर के तेराशिंघा ताम्रपत्र से तेल घाटी में राज्य करने वाले एक वंश के विषय में जानकारी मिलती है, इस ताम्रपत्र से दो शासकों के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है. पहले राजा सोमन्नराज की माता कौस्तुभेश्वरी जब दाहज्वर से बीमार पड़ गई थीं, तब सोमन्नराज ने देभोक (रायपुर जिले के देवभोग) क्षेत्र का दान किया था.
दूसरे राजा तुष्टिकर द्वारा तारभ्रमक से पर्वतद्वारक नामक ग्राम दान में दिया गया था इस लेख से ज्ञात होता है कि इस वंश के लोग स्तंभेश्वरी देवी के उपासक थे, जिसका स्थान पर्वतद्वारक में था, जिसकी समानता कालाहाण्डी जिले के पर्थला’ नामक स्थान से की जाती है. पर्वतद्वारक वंश का नाम इसी आधार पर रखा गया है जिसके अधिकार क्षेत्र में रायपुर का दक्षिणी भाग आता था.