रायपुर के कलचुरि (लहुरि शाखा)[Kalachuri (Lahuri Branch) of Raipur]
कलचुरियो के रायपुर शाखा के संस्थापक केशव देव थे। रामचंद्र देव् ने रायपुर शहर को बसाया था। ब्रह्मदेव ने 1409 में रायपुर को अपनी राजधानी बनाई थी,और रायपुर के दूधाधारी मठ का निर्माण कराया था। ब्रह्मदेव के समय 1415 में देवपाल जो की पेशे से मोची थे। उन्होंने खल्लारी में खल्लारी देवी माँ का मंदिर बनवाया था।
रायपुर के कलचुरि (लहुरि शाखा)
रतनपुर के कलचुरियों की लहुरि शाखा लगभग चौदहवीं शताब्दी ई. में रायपुर में स्थापित हुई. इस शाखा के राजा ब्रह्मदेव के दो शिलालेख रायपुर तथा खल्लारी से क्रमशः विक्रम संवत् 1458 एवं 1472 तद्नुसार 1402 एवं 1415 ई. के प्राप्त हुए हैं. इन अभिलेखों में लक्ष्मीदेव के पुत्र सिंघण तथा सिंघण के पुत्र रामचन्द्र का उल्लेख मिलता है. इसमें सिंघण द्वारा अठारह गढ़ों को जीतने का उल्लेख है. रामचन्द्र द्वारा नागवंश के राजा माणिंगदेव को पराजित किए जाने का विवरण भी मिलता है.
ब्रह्मदेव के शिलालेख से प्रकट होता है कि चौदहवीं सदी के मध्य में रतनपुर के राजा का रिश्तेदार लक्ष्मीदेव प्रतिनिधि के रूप में खल्लारी भेजा गया था. सम्भवतः बाद में उसका पुत्र सिंघण अथवा सिंहण रतनपुर के राजा से मतभेद होने पर स्वतन्त्र हो गया. इसके पौत्र एवं रामचन्द्र के पुत्र ब्रह्मदेव के काल से पूर्व रायपुर का उल्लेख नहीं मिलता है. ब्रह्मदेव के काल से ही रायपुर का विवरण प्राप्त होता है और उसके बाद खल्लारी या खल्वाटिका का राजधानी बने रहने का भी कोई प्रमाण नहीं मिलता. अतः रायपुर को राजधानी ब्रह्मदेव द्वारा ही बनाया गया होगा. रायपुर को राजधानी बनाने की तिथि 1409 ई. स्वीकार की जाती है. खल्लारी अभिलेख से ज्ञात होता है कि देवपाल नामक मोची ने नारायण का एक मन्दिर यहाँ 1415 ई. में बनवाया था.
ब्रह्मदेव के पश्चात् रायपुर के कलचुरियों से सम्बन्धित अधिकृत जानकारी उपलब्ध नहीं है. स्थानीय परम्परा के अनुसार रायपुर शाखा का संस्थापक केशवदेव नामक राजा था, जो कलचुरियों की अनुश्रुतिगम्य वंशावली के उल्लिखित सैंतीसवें राजा वीरसिंह का छोटा भाई था. चूँकि ऐतिहासिक साक्ष्यों से ब्रह्मदेव नामक राजा की जानकारी उपलब्ध है. अतः इसके पश्चात् केशवदेव का काल 1420 ई. मानते हुए अन्तिम राजा अमरसिंह देव के मध्य सोलह राजाओं की सूची मिलती हैं.
रायपुर के कलचुरि शासक
कनिंघम की रिपोर्ट व रायपुर जिला गजेटियर के आधार पर
- 1. केशवदेव-1420 ई.
- 2. भुवनेश्वरदेव-1438 ई.
- 3. मानसिंह-1463 ई.,
- 4. संतोष सिंह देव-1478 ई.,
- 5. सूरतसिंह देव-1498 ई.,
- 6. सम्मान सिंह देव-1518 ई.,
- 7. चामुण्ड सिंह देव-1528,
- 8, बंशीसिंह देव-1563 ई.
- 9, धनसिंह देव-1582 ई.,
- 10. चैतसिंह देव-1603 ई.,
- 11. फत्तेसिंह देव-1615 ई.,
- 12. यादवसिंह देव-1633 ई.,
- 13. सोमदत्तदेव-1650 ई.,
- 14. बलदेवसिंह देव-1663,
- 15. उमेदसिंह देव-1685 ई.,
- 16. बनवारी सिंह देव-1705 ई.
इन सोलह राजाओं के पश्चात् अमरसिंह देव 1741 ई. का विवरण प्राप्त होता है, जिसका उल्लेख किया गया है.
इस सूची के अनुसार 1741 से 1750 ई. तक अमरसिंह देव ने राज्य किया था, किन्तु अमरसिंहदेव का एक ताम्रपत्र विक्रम संवत् 1792 तद्नुसार 1735 ई. का प्राप्त हुआ है, जिससे स्पष्ट होता है कि वह 1735 ई. के पूर्व राजा हो गया था. 1741 ई. में भोंसलों द्वारा छत्तीसगढ़ आक्रमण के समय रायपुर वचा रहा, किन्तु अमरसिंह देव को 1750 ई. में मराठों ने बिना किसी विरोध के राज्यच्युत कर दिया और रायपुर की गद्दी छीन ली. अमरसिंह को रायपुर, राजिम व पाटन के परगनें देकर ₹7000 वार्षिक टकोली निश्चित कर दी गई. 1753 ई. में अमरसिंह की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र शिवराजसिंह उत्तराधिकारी बना, किन्तु भोंसलों ने उससे उत्तराधिकार में प्राप्त जागीरें भी छीन ली.
1757 ई. में बिंबाजी ने छत्तीसगढ़ में अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया, तब उसे गुजारे के लिए महासमुंद तहसील के अन्तर्गत बड़गाँव एवं अन्य चार कर मुक्त ग्राम प्रदान किये, साथ ही उसे रायपुर परगने के प्रत्येक गाँव से एक-एक रुपया वसूल करने का अधिकार भी दिया, इस प्रकार 750 वर्षों के लम्बे समय तक शासन करने के पश्चात् कलचुरि राजवंश समाप्त होने के साथ छत्तीसगढ़ के इतिहास से हैहयवंशियों का नाम बड़े ही चमत्कारिक ढंग से समाप्त हो गया.
प्रशासनिक व्यवस्था
उस समय प्रशासनिक सुविधा के लिए राज्य 36 गढ़ो में बांटा गया था। जिसका प्रमुख दिवान हुआ करता था। 1 गढ़ बारहो में विभाजित था जिसका प्रमुख दाऊ होता था। बारहो गावो में विभाजित था जिसका प्रमुख गौटिया होता था। गांव शासन करने की सबसे छोटी इकाई थी।
1 गढ़ =7 बारहो =84 गांव