छत्तीसगढ़ की न्याय व्यवस्था
छत्तीसगढ़ की न्याय व्यवस्था
मराठा शासन के अन्तर्गत न्याय के निर्वहन हेतु न तो निश्चित नियम थे न ही निश्चित अदालतें थी. छत्तीसगढ़ क्षेत्र के ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत आने के पश्चात् यहाँ के लिए नवीन न्याय व्यवस्था का सृजन किया गया जिसमें पंजाब में लागू सिविल कोड को आधार बनाया गया, इस व्यवस्था के अनुसार न्यायिक कार्य हेतु पृथक् से न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति न कर इसका दायित्व जिला अधिकारी व उसके अधीनस्थों को सौंपा गया. रायपुर व बिलासपुर जिलों में डिप्टी कमिश्नर (जिलाधिकारी) ही यह कार्य करते थे, किन्तु संबलपुर के लिए कमिश्नर, सहायक कमिश्नर, अतिरिक्त सहायक कमिश्नर, तहसीलदार और अन्य अधिकारियों द्वारा विभिन्न स्तरों पर सीमा और अधिकार क्षेत्र में किया जाने लगा, कमिश्नर समय समय पर जिलाधिकारी को न्यायिक कार्यों से सम्बन्धित सिद्धान्तों और नीतियों के परिपालन हेतु निर्देश भेजा करता था.
न्याय विभाग को व्यवस्थित करने की दृष्टि से छत्तीसगढ़ संभाग में सबसे वरिष्ठ अधिकारी के रूप में जिला और सत्र न्यायाधीश को पदस्थ किया गया जिसका मुख्यालय रायपुर था. इसकी सहायता के लिए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश और व्यवहार न्यायाधीश (प्रथम और द्वितीय श्रेणी) पदस्थ किए गए. 1925 ई. में हुए परिवर्तन के अनुसार जिले का प्रमुख अधिकारी डिप्टी कमिश्नर था जो दीवानी और फौजदारी मुकदमों की देखभाल करता था. इस कार्य में उसकी सहायता के लिए सहायक कमिश्नर होते थे (वर्तमान डिप्टी कलेक्टर के अनुरूप). दीवानी मामलों का संभागीय प्रमुख अधिकारी जिला सत्र न्यायाधीश होता था. वह दीवानी और फौजदारी से सम्बन्धित मूल और अपीली मामलों को देखा करता था. साथ ही
अधीनस्थ न्यायालयों को सलाह देना और उनके कार्यों का निरीक्षण करना भी उसका कार्य था.
दीवानी न्याय
तहसीलदारों को दीवानी मामलों में तहकीकात करने का अधिकार सौंपा गया और जिलों तथा परगनों में उनके दीवानी और फौजदारी अधिकारों की सीमा निर्धारित की गई. सितम्बर 1856 में कमिश्नर ने नायब तहसीलदारों के न्यायिक कार्यों के सम्पादन के अधिकार को खत्म कर दिया. एक पक्षीय निर्णय देने पर रोक थी. राजीनामा करने की पद्धति की व्यवस्था की गई. अपील का समय दो माह निश्चित किया गया. दीवानी न्याय में एकरूपता हेतु जिला मुख्यालयों के लिए डिप्टी कमिश्नर और सहायक कमिश्नरों को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने का प्रावधान रखा गया. अपील संभागीय कमिश्नर को किया जा सकता था और इसके निर्णय के विरुद्ध अंतिम अपील के लिए न्यायिक कमिश्नर का प्रावधान किया गया. इस नई व्यवस्था को । जनवरी, 1863 में लागू किया गया. कालांतर में दीवानी मामले जिले का प्रमुख अधिकारी व उसके अधीनस्थों द्वारा देखे जाने लगे. दीवानी मामलों का संभागीय बड़ा अधिकारी जिला एवं सत्र न्यायाधीश होता था, जो मूल और अपीली दोनों मामले देखता था.
फौजदारी न्याय-
फौजदारी न्याय से सम्बन्धित अधिकार तहसीलदार या डिप्टी कमिश्नरों को सौंपा गया. साथ ही पूर्व समय के अनुसार स्थानीय प्रमुख के समक्ष अपील करने का अधिकार चालू रहा. कमिश्नर को अंतिम आदेश प्रसारित करने का अधिकार था जो उम्र कैद की सजा दे सकता था. मृत्यु दण्ड से सम्बन्धित मामले गवर्नर जनरल के समक्ष भेजे जाते थे.
तहसीलदार को एक सीमा के अन्तर्गत फौजदारी और पुलिस सम्बन्धी अधिकार सौंपे गए, साथ ही डिप्टी कमिश्नर के फौजदारी सम्बन्धी अधिकारों को भी स्पष्ट किया गया और इससे ऊपर के मामले कमिश्नर देखता था. बाद में कमिश्नर गवर्नर जनरल की अनुमति के बिना ही मृत्यु दण्ड देने लगा. कालांतर में जिले के प्रमुख एवं उसके अधीनस्थ अपने कार्य क्षेत्र के अन्तर्गत फौजदारी मामले देखने लगे जिसकी अपीलें संभागीय स्तर पर होती थी.
मामलों के शीघ्र निपटारे हेतु संभाषण पद्धति लागू की गई. विशेष कर अपील सम्बन्धी प्रक्रिया विलंबकारी थी. जनवरी 1862 में इण्डियन पेनल कोड लागू होने पर व्यवस्था में ठोस परिवर्तन आया. आने वाले समय में समूचे देश में न्याय कार्य को प्रशासन से पृथक किया गया.
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