बस्तर का इतिहास [History of Bastar]
बस्तर का इतिहास [History of Bastar]
इसके इतिहास के सूत्र पाषाण युग अर्थात् प्रागैतिहासिक काल से मिलते हैं. इन्द्रावती नदी के तट पर स्थित खड़कघाट, कालीपुर, माटेवाड़ा, देउरगाँव, गढ़चन्देला, घाटलोहंगा तथा नारंगी नदी के तट पर अवस्थित गढ़ बोदरा और संगम के आगे चितरकोट आदि स्थानों से पूर्व पाषाण काल, मध्य पाषाण काल, उत्तर पाषाण काल तथा नव पाषाण काल के अनेक अनगढ़ एवं सुघड़ उपकरण उपलब्ध हुए। हैं.
बस्तर का दण्डकारण्य नाम कैसे पड़ा ?
बस्तर वनांचल, दण्डकारण्य का एक महत्वपूर्ण भू खंड माना जाता रहा है. तब इस राज्य का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं था.
दण्डक जनपद का शासक था इक्ष्वाकु का तृतीय पुत्र दण्ड. शुक्राचार्य, राजा दण्ड के राजगुरु थे. दण्ड के नाम पर ही इसे दण्डक जनपद और कालान्तर में सम्पूर्ण वन क्षेत्र को दण्डकारण्य कहा गया. ‘वाल्मीकि रामायण’, ‘महाभारत’, ‘वायु पुराण’, ‘मत्स्य पुराण’ और ‘वामन पुराण’ आदि ग्रन्थों के अनुसार एक बार शुक्राचार्य की अनुपस्थिति में उनके आश्रम में घुस कर राजा दण्ड ने उनकी कन्या अरजा के साथ बलात्कार किया था, जिससे कुद्ध होकर महर्षि शुक्राचार्य ने उद्दण्ड राजा दण्ड को ऐसा श्राप दिया था कि उसका वह वैभवशाली दण्डक जनपद भस्मीभूत होकर कालान्तर में दण्डकारण्य के रूप में परिणित हो गया. इस प्रकार, राजा दण्ड के नाम पर ही एक विस्तृत और भयावह वन क्षेत्र का नाम दण्डकारण्य पड़ गया था और यह नाम आज भी अपनी जगह स्थित है. पहले इसे ‘महाकान्तार’ भी कहते थे.
यह भी उल्लेखनीय है कि ‘दण्डक-जनपद’ की राजधानी ‘कुंभावती’ थी, जिसे रामायण में मधुमंत बताया गया है. दण्डकारण्य की सीमा के अन्तर्गत भूतपूर्व वस्तर राज्य, जयपुर जमींदारी, चांदा जमींदारी और गोदावरी नदी के उत्तर का आधुनिक आन्ध्र प्रदेश सम्मिलित थे. अर्थात् रामायणयुगीन ‘दण्डक वन’ ही आज के बस्तर का दण्डकारण्य है, जो कभी महाकान्तार भी कहा जाता था.
वस्तर की आदिवासी संस्कृति एवं समाज व्यवस्था तथा उनकी शाक्त एवं शैव परम्परा तथा जादू-टोने जैसा तान्त्रिक विश्वास आदि ऐसे तत्व हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि यहाँ आसुरी संस्कृति का वर्चस्व रहा है.
बस्तर में पाये जाने वाले अनेक गाँव एवं मामा भान्जे के परस्पर प्रगाढ़ सम्बन्ध, रावण और मारीच के सम्बन्धों को व्यक्त करते हैं. यहाँ राम ने वनवास के समय पदार्पण किया होगा, गोदावरी नदी ‘सीता और राम’ की याद दिलाती है. कहा जाता है कि पाण्डवों ने भी अपने वनवास का कुछ काल यहाँ व्यतीत किया था.
अबूझमाड़ क्षेत्र में आज भी एक ऐसा गाँव ‘पुजारी-कांकेर’ है, जहाँ प्रतिवर्ष पाण्डवों एवं धनुष-तीर आदि उपकरणों की पूजा होती है. नगरी-सिहावा का क्षेत्र शृंगी ऋषि एवं सप्त ऋषियों की तपोभूमि कहा जाता है. अगस्त मुनि आरण्यक में निवास करते थे. अतः यह सिद्ध होता है कि बस्तर ऋषि मुनियों की भी तपोभूमि रही. इस तरह बस्तर में ऋषि मुनि एवं असुर दोनों ही प्रकार के लोग रहते थे.
बस्तर के मध्यकालीन राजवंश बस्तर कोरापुट क्षेत्र में नलवंश के पश्चात् इस क्षेत्र में नागवंशियों एवं काकतियों ने शासन किया. चूँकि इन राजवंशों का शासन बस्तर में दसवीं शताब्दी के पश्चात् रहा है.