बस्तर में छिंदक नाग वंश [Chindak Nag Dynasty in Bastar]
बस्तर में छिंदक नाग वंश (1023-1324 ई.) [Chindak Nag Dynasty in Bastar]
जिस समय दक्षिण कोसल क्षेत्र में कलचुरि वंश का शासन था, लगभग उसी समय बस्तर क्षेत्र में छिन्दक नागवंश के राजाओं का अधिकार था. ये नागवंशी ‘चक्रकोट’ के राजा के नाम से विख्यात थे. प्राचीन महाकान्तर अथवा दण्डकारण्य का वह भाग इस काल में ‘चक्रकोट’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ. कालान्तर में इसी का रूप बदलकर ‘चित्रकोट’ हो गया. बस्तर के नागवंशी राजा भोगवतीपुरवरेश्वर की उपाधि धारण करते थे. ये अपने आपको कश्पब गोत्रीय एवं छिन्दक कुल का मानते थे. सम्भवतः इसीलिये इन्हें छिन्दक नाग कहा जाता है. यहाँ सन 1109 ई. का एक शिलालेख तेलग भाषा का प्राप्त हुआ. जिसमें सोमेश्वर देव और उसकी रानी का उल्लेख है.
बस्तर के नागवंशी शासक की 2 शाखा
बस्तर में नाग शासकों की दो शाखाएँ थीं, प्रथम शाखा का चिह्न ‘शावक संयुक्त व्याघ्र’ तथा दूसरी शाखा का ‘कमल कदली पत्र’ था. सम्भवतः प्रथम शाखा के शासक ‘शैव’ व द्वितीय शाखा के शासक ‘वैष्णव धर्म’ के अनुयायी थे.
छिंदक नाग वंश के शासक
नृपतिभूषण:-
बस्तर के छिंदक नागवंश के प्रथम राजा का नाम नृपतिभूषण का उल्लेख एराकोट से प्राप्त शक संवत् 945 अर्थात् 1023 ई. के एक तेलुगु शिलालेख में मिलता है. इसकी राज्यावधि के विषय में स्पष्ट जानकारी नहीं है.
धारावर्ष :-
धारावर्ष नृपतिभूषण के उत्तराधिकारी धारावर्ष जगदेवभूषण का बारसूर से शक संवत् 983 अर्थात् 1060 ई. का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसके अनुसार उसके सामन्त चन्द्रादित्य ने बारसूर में एक तालाब का उत्खनन कराया था तथा एक शिव मन्दिर का निर्माण कराया था. समकालीन समय में धारावर्ष महत्वपूर्ण शासक था.
मधुरांतक देव :-
इस वंश का तीसरा शासक था, इसके काल के विषय में प्राप्त राजपुर के समीप के ताम्रपत्र में नरबलि के लिखित साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। धारावर्ष की मृत्यु के बाद उसके दो सम्बन्धी मधुरांतकदेव तथा उसके बेटे सोमेश्वरदेव के बीच सत्ता संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई और कुछ समय के लिये मधुरांतकदेव धारावर्ष के बाद शासक बना. उसका एक ताम्रपत्र लेख राजपुर (जगदलपुर) से प्राप्त हुआ है, जिसमें भ्रमरकोट मण्डल स्थित राजपुर ग्राम के दान का उल्लेख है. सम्भवतः भ्रमरकोट ‘चक्रकोट’ का ही दूसरा नाम है अथवा उसी के अन्तर्गत एक क्षेत्र,
सोमेश्वरदेव:-
अल्पकाल में ही धारावर्ष के पुत्र सोमेश्वर ने मधुरांतक से अपना पैतृक राज्य प्राप्त कर लिया. यह एक महान् योद्धा, विजेता और पराक्रमी नरेश था. उसने बस्तर क्षेत्र के अतिरिक्त वेंगी, भद्रपट्टन एवं वज़ आदि क्षेत्रों को विजित किया. इसने दक्षिण कोसल के 6 लाख 96 ग्रामों में अधिकार कर लिया था, किन्तु शीघ्र ही कलचुरि राजा जाजल्लदेव प्रथम ने उसे पराजित कर उसके राज महिषी एवं मंत्री को बंदी बना लिया, किन्तु उसकी माता की प्रार्थना पर उसे मुक्त कर दिया.
सोमेश्वर देव के काल के अभिलेख 1069 ई. से 1079 ई. के मध्य प्राप्त हुये. उसकी मृत्यु 1079 ई. से 1111 ई. के मध्य हुई होगी, क्योंकि सोमेश्वर की माता गुंडमहादेवी का नारायणपाल में प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि सन् 1111 ई. में सोमेश्वर का पुत्र कन्हरदेव राजा था. इसके अतिरिक्त कुरूसपाल अभिलेख एवं राजपुर ताम्राभिलेख से भी कन्हरदेव के शासन का उल्लेख मिलता है.
कन्हर देव-
सोमेश्वर की मृत्यु के बाद ये सिंहासान पर बैठे, इनका कार्यकाल 1111 ई. – 1122 ई. तक था,कन्हार्देव के बाद – जयसिंह देव, नरसिंह देव, कन्हरदेव द्वितीय, शासक बने| जगदेव भूषण( नरसिंह देव ) :- मणिकेश्वरी देवी (दंतेश्वरी देवी) का भक्त था।
राजभूषण अथवा सोमेश्वर द्वितीय
राजभूषण अथवा सोमेश्वर द्वितीय कन्हर के पश्चात् सम्भवत् राजभूषण सोमेश्वर नामक राजा हुआ. उसकी रानी गंगमहादेवी का एक शिलालेख बारसूर से प्राप्त हुआ है, जिसमें शक संवत् 1130 अर्थात् 1208 ई. उल्लिखित है.
जगदेवभूषण
नरसिंहदेव सोमेश्वर द्वितीय के पश्चात् जगदेवभूषण नरसिंहदेव शासक हुआ, जिसका शक संवत् 1140 अर्थात् 1218 ई. का शिलालेख जतनपाल से तथा शक संवत् 1147 अर्थात् 1224 ई. का स्तम्भ लेख मिलता है, भैरमगढ़ के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि वह माणिकदेवी का भक्त था. माणिक देवी को दंतेवाड़ा की प्रसिद्ध दंतेश्वरी देवी से समीकृत किया जाता है.
हरिशचंद्र देव (अंतिम शासक ) –
इसके पश्चात् छिंदक नागवंश का क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता. सुनारपाल के तिथिविहीन शिलालेख से जैयसिंह देव नामक राजा का उल्लेख मिलता है. अन्तिम लेख ‘टेमरा’ से प्राप्त एक सती स्मारक लेख शक संवत् 1246 अर्थात् 1324 ई. का है, जिसमें हरिशचन्द्र नामक चक्रकोट के राजा का उल्लेख मिलता है. यह सम्भवतः नागवंशी राजा ही है. इसके पश्चात् नागवंश से सम्बन्धित जानकारी उपलब्ध नहीं है.
छिंदक नागवंश इस वंश के अंतिम शासक का नाम था हरिश्चन्द्र देव।1324 ई. तक शासन किया । हरिशचंद्र देव की बेटी चमेली देवी ने अन्नमदेव से कड़ा मुकाबला किया था ,जो की “चक्रकोट की लोककथा ” में आज भी जीवित है। इस वंश के अंतिम अभिलेख टेमरी से प्राप्त हुआ है , जिसे सती स्मारक अभिलेख भी कहा जाता है। जिसमे हरिश्चंद्र का वर्णन है। छिंदक नागवंश कल्चुरी वंश के समकालीन थे। हरिश्चन्द्र को वारंगल(आंध्रप्रदेश) के चालुक्य अन्नभेदव (जो काकतीय वंश के थे) ने हराया और छिंदक नागवंश को समाप्त कर दिया।
काकतीयों का शासन
वस्तर में प्रचलित किंवदंती के अनुसार, यहाँ के नागवंश के राजा के अन्तिम शासक हरिशचन्द्रदेव को वारंगल के चालुक्यों (काकतीयों) ने पराजित कर चक्रकोट में अपना प्रभाव स्थापित कर लिया. अतः नागवंश के अन्तिम राजा हरिशचन्द्र का काल 1324 ई. तक माना जा सकता है. वस्तुतः ये वारंगल के काकतीय राजा अन्नमदेव थे, जिन्होंने पहले दक्षिण बस्तर पर विजय प्राप्त की और कालान्तर में 1324 ई. के आस-पास इन्द्रावती के उत्तर के क्षेत्र को भी अपने अधिकार में कर लिया और मंधोता में अपना राजधानी स्थापित की. इस तरह नागवंशियों के बाद यहाँ वारंगल के ‘काकतीयों’ ने शासन किया.
नागवंश के शासनान्तर्गत बस्तर क्षेत्र का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विकास हुआ, यद्यपि उन्हें दक्षिण में आन्ध्र की ओर से और उत्तर में रतनपुर राज के आक्रमणों का सामना करना पड़ा तथा पूर्व में उत्कल के शासकों का दबाव बना रहता था, फिर भी नाग बुगीन बस्तर का सर्वांगीण विकास होता रहा. सल्तनत काल में वारंगल पर दिल्ली के राजनीतिक दबाव के कारण काकतीयों को बस्तर की ओर एक सुरक्षित स्थल के रूप में बढ़ना पड़ा, क्योंकि इनके पास सुसज्जित सेना, धन एवं बल था. अतः वे बस्तर क्षेत्र में अपना राज्य स्थापित करने में सफल हुए और सदियों से विकसित नल नागयुगीन बस्तर की राजनीति इनसे प्रभावित हुई. नागवंशी शासक उत्तर की ओर रतनपुर के कलचुरियों के कारण नहीं बढ़ सके. अतः उनका पराभव परिस्थितिवश स्वाभाविक हो गया.
प्रमुख बातें
- बस्तर का प्राचीन नाम “चक्रकूट” तो कई उसेे “भ्रमरकूट” कहते हैं।
- यहाँ नागवंशियों का शासन था। नागवंशी शासकों को सिदवंशी भी कहा जाता था।
- चक्रकोट में छिंदक नागवंशो की सत्ता 400 वर्षो तक कायम रही। ये दसवीं सदी के आरम्भ से सन् 1313 ई. तक शासन करते रहे।
- दक्षिण कोसल में कलचुरी राजवंश का शासन था, इसी समय बस्तर में छिंदक नागवंश का शासन था।
- बस्तर के नागवंशी भोगवती पुरेश्वर की उपाधि धारण करते थे।
- बारसूर के मामा –भांजा मदिर का निर्माण छिन्दकवंशियो के राजाओं ने कराया था।