बस्तर में ब्रिटिश राज (1854-1947 ई.)
बस्तर में ब्रिटिश राज (1854-1947 ई.)
डलहौजी की हड़प नीति के तहत् 1854 ई. में नागपुर राज्य रघुजी तृतीय के निःसंतान मृत्यु होने के पश्चात् ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया. भोंसला राज्य के 1854 ई. में ब्रिटिश शासन का अंग बन जाने से नागपुर राज्य के अधीन छत्तीसगढ़ के साथ बस्तर भी स्वाभाविक रूप से 1854 ई. में ही अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बन गया. 1855 ई. में ब्रिटिश सरकार ने देशी रियासतों से संबद्ध पुरानी सन स्वीकार कर ली.
प्रथम यूरोपीय-इलियट का 1856 ई. में बस्तरागमन-
नागपुर राज्य के ब्रिटिश शासन में विलय के पश्चात् बस्तर छत्तीसगढ़ संभाग के नियन्त्रण में आ गया था तथा समय समय पर छत्तीसगढ़ सूबा के डिप्टी कमिश्नर उसका निरीक्षण करते रहते थे, इस प्रकार छत्तीसगढ़ संभाग का डिप्टी कमिश्नर मेजर चार्ल्स इलियट प्रथम यूरोपीय था, जो 1856 ई. में बस्तर आया था तथा जिसने इस क्षेत्र से सम्बद्ध मूल्यवान सामग्री जुटाई थी. इलियट से पूर्व 1795 ई. में बलण्ट ने इस क्षेत्र में प्रवेश करना
चाहा था, किन्तु उसे सफलता नहीं मिली थी. इलियट द्वारा संचित सामग्री जगदलपुर के जिलाधीश कार्यालय में हस्तलिखित रूप में विद्यमान है. 1854 में बस्तर ब्रिटिश भारत का एक माण्डलिक राज्य बन गया. पहली अप्रैल 1882 तक बस्तर छत्तीसगढ़ डिवीजन के अन्तर्गत अपर गोदावरी जिले के डिप्टी कमिश्नर के अधीन था, जिसका मुख्यालय सिरोचा था. तदनन्तर बदलाव आया तथा कुछ समय के लिए यह कालाहांडी के भवानीपाटणा के ‘सुपरिण्टेण्डेट’ के अन्तर्गत रहा.
महान् मुक्ति संग्राम की लपटें (1856-57 ई.) : लिंगागिरी विद्रोह [click]
कोई विद्रोह (1859 ई.) : वन संरक्षण का प्रथम भारतीय उदाहरण [click]
दीवान कालीन्द्रसिंह राज्य के उत्तराधिकारी-
भैरमदेव के कोई सन्तान न थी. अतएव उन्होंने लाल कालीन्द्रसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, किन्तु लाल कालीन्द्रसिंह ने राजा के इस निर्णय को उचित नहीं माना तथा उनके प्रयास से वंश रक्षा के लिए राजा का तृतीय विवाह जैपुर के मुकुन्ददेव माछमार की अनुजा के साथ भैरमदेव का विवाह, बड़ी महारानी युवराज कुंपरिदेवी के विरोध के बाद भी 1883 में हुआ, जिससे रुद्रप्रतापदेव का जन्म हुआ.
दीवान पद ब्रिटिश अधिकारियों की नियुक्ति-
नरबलि का बहाना लेकर ब्रिटिश शासन ने प्रशासनिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण निर्णय यह लिया कि 1886 ई. में बस्तर में ब्रिटिश अधिकारियों को ही दीवान के पद पर नियुक्त किया जाएगा.
राजा भैरमदेव को इसकी अनुमति देनी पड़ी, राजा के अधिकार बहुत संकुचित कर दिए गए. वह बिना उच्च अधिकारी की अनुमति के अपने दीवान को आज्ञापालन के लिए बाध्य नहीं कर सकता था.