कलचुरियों में स्थापत्य एवं शिल्प कला [Architecture and Crafts in Kalchuris]
कलचुरियों में स्थापत्य एवं शिल्प कला [Architecture and Crafts in Kalchuris]
स्थापत्य एवं शिल्प भारतीय कला के इतिहास में कलचुरि कला का अपना विशिष्ट स्थान है. यद्यपि पुरातत्ववेत्ताओं की दृष्टि से इसका योगदान नगण्य है, इसलिए चेदिशिल्प अंधकार के आवरण में चला गया है, किन्तु सम्भावना है कि इतिहासकारों की नई पीढ़ी अवश्य ही इस ओर प्रयत्नशील होगी.
कलचुरियों ने अनेक मन्दिरों, धर्मशालाओं, अध्ययन शालाओं, मठों इत्यादि का निर्माण करवाया, किन्तु अवशेष के रूप में केवल मन्दिर, ताम्रपत्र एवं उनके सिक्के ही वर्तमान में प्राप्त होते हैं. कलचुरि स्थापत्य की अपनी एक स्वतन्त्र शैली थी, जिसका काल 1000-1400 ई. निर्धारित किया गया है, जवकि परवर्ती कलचुरि काल को 1400-1700 ई. के मध्य रखा गया है. परवर्ती काल के अवशेष कम प्राप्त होते हैं एवं कला का हास दिखायी पड़ता है.
कलचुरि शिल्प में मन्दिर के द्वारों पर गजलक्ष्मी अथवा शिव की मूर्ति पायी जाती है. गजलक्ष्मी कलचुरि वंश की कुलदेवी थी और वे शैव
उपासक थे. इनके सिक्कों पर ‘लक्ष्मी देवी’ अंकित प्राप्त होती हैं तथा ताम्रपत्र लेख का आरम्भ हमेशा ‘ओम नमः शिवाय’ से होता है.